साढ़े चार बजने को थे...घर पहुंचते ही मैंने जल्दी जल्दी हाथ मुंह धोए और खाना खा कर दिमाग़ में उठ रहें ख्यालों को कागज़ पर लिखने लगा था.. आपको बता दूं यहां से मेरे लिखने की शुरुआत हों चुकी थी.. जो मेरे लिए एक बेहद चुनौती पूर्ण होने वाला था... लेकिन मेरे हौसले उन साहित्यकारों और लेखकों के बारे में पढ़ के मजबूत थे जिन्होंने कठिन से कठिन परिस्थितियों में धैर्य नहीं खोया और अपनी लेखनी का लोहा मनवाया लेकिन ये बात भी मैं जान चुका था कि भारत के मूल इतिहास को क्यों दवाया गया... स्वाभिकता तो ये भी थी कि हम भारतीय होकर भी भारत के प्रति इतने निराशावान क्यों होते जा रहें थे.. हम अपनी मूल संस्कृति के संस्कारों को हम हिन्दू क्यों छोड़ते जा रहें थे.. मैंने निर्णय कर लिया था कि अब मुझे अपने भारत की विशाल तस्वीरों को मुझे शब्दों के माध्यम से प्रदर्शित करना ही होगा जिसके लिए मैं रोज कॉलेज से आकर घंटो अपने कमरे में बैठ कर लिखने में व्यतीत करने लगा था.. मेरे इस रवइये से पापा भी कुछ परेशान से होंने लगें थे शायद उन्हें ऐसा लगा रहा था.. कि मैं ज़वानी के इस दौर में कही भटक तो नहीं रहा.. इन्ही सब बातों को लेकर आज भी पापा मेरे कमरे में आकर छानबीन करने लगें थे.. उन्होंने आते ही मेरी किताबों को चेक करना शुरू किया मैं चुपचाप उन्हें देखता रहा.. जब कुछ नहीं मिला तो मेरे पास बैठते हुए बोले...
पापा- आजकल तुम्हारा चल क्या रहा हैं..?
पापा पढ़ाई चल रही हैं... और कुछ नहीं..!
पापा- इतनी पढ़ाई तो तुमने स्कूल टाइम में भी नहीं की कॉलेज में जाते ही ऐसा क्या हो गया जो तुम आते ही अपने कमरे में बंद हों जाते हों..?
मैं सच कह रहा हूं पापा, मैं सिर्फ पढ़ाई ही कर रहा हूं
पापा ने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा.. देखो बेटा किसी लड़की वड़की के चक्कर से दूर ही रहना.. मेरे और तुम्हारे साथ क्या हुआ ये तुम अच्छी तरह से जानते हों पहले पढ़ाई फिर अच्छी नौकरी फिर कोई ढंग की लड़की.. जिन हालातों से मैं गुज़रा हूं उन हालातों से मैं तुम्हे गुज़रते हुए नहीं देखना चाहता...
मैंने पापा को यकीन दिलाया..
पापा आप निश्चिन्त रहें मैं ऐसा बिलकुल भी नहीं करूंगा जिससे आपको और मुझे तकलीफ हों.
पापा को मेरी बातों पर अब यकीन हों चुका था.. वो चुपचाप उठे और मुस्कुराते हुए मेरे कमरे से बाहर चले गए थे.. पापा के इस रवइए से मुझमे हिम्मत सी बंधने लगी थी..
खैर जब मेरी नजर दीवाल घड़ी पर गई तो खाने का वक़्त हों चुका था मैं जल्दी से उठ कर किचन की तरफ भगा था.. क्योंकि घर की कुछ जिम्मेदारियों में भी हाथ बटाना मेरा फर्ज़ था..
मेरे लेखन के प्रयासों से भारत के इतिहास के अतीत का उदय होने जा रहा था ये सफर था मेरा और मेरी कलम का... वैसे तो हमारे भारत के इतिहास को कई रूप से शब्दबद्द किया गया और जैसे जैसे भारत की कमान शासको के हाथो में आती गई वैसे वैसे भारत के इतिहास में घटनाएं और शासन काल दर्ज होते गए वारहाल मेरे मन में जो इतिहास के अतीत को लेकर उथल पुथल थी उसे मुझे अपनी दृष्टि की सोच से दुनियां को अवगत कराना था जिसका मेरा मूल उद्देश्य सिर्फ इतना हैं कि हम बातों बातों में अपने भारत और भारत की मूल संस्कृति से आवगत हों सके...आज के इस युग में इतहास के पन्नों पर इतनी धूल जमा हों गई हैं कि चाहकर भी कोई हटाना नहीं चाहता हालांकि बहुत से लेखकों ने काफ़ी प्रयास किए लेकिन हम फिर भी भारत के मूल अतीत से अनभिज्ञ ही रहें...जैसा हम और हमारी आज की जनरेशन भारत के इतिहास को लेकर ना तो जिज्ञासू हैं और ना ही उसके प्रति रूचि रखती हैं.. भारत का लेखक लिखना तो बहुत चाहता हैं पर पढ़ने वालों की बहुत कमी भी बहुत हों चुकी हैं.... इस बात को जानते हुए भी मैंने इस अथाह समन्दर में डूबने के लिए अपने कदम बढ़ा दिए थे...यही सोच कर के भले मेरा योगदान किसी बलिदानी के तौर पर ना हों लेकिन कम से कम एक लेखक प्रहरी के तौर पर भारत के प्रति अपना योगदान तो दें ही सकता हूं मेरे मन में जो भारत के प्रति योगदान की तमन्ना हैं उसे में अपनी कलम के सहारे ही भारत के इतिहास को गढ़ सकता हूं ..क्योंकि पापा ने भी मुझे यही शिक्षा दी हैं कि सबसे पहले अपना देश, धर्म, संस्कृति, समाज और फिर परिवार का सोचोगे तभी आप अपने मुकाम पर पहुँचोगे इसी कारण से मेरी दिनचर्या अपने सहपाथियों से मित्रों से काफी अलग थी... क्योंकि पापा ने मुझे बचपन से ही ब्रम्ह महूर्त में जागने की शिक्षा दी.. अपने नित्य कर्मों से निर्वरत्त होकर ध्यान, पूजा, व्यायाम फिर नशाता उसके बात सारे काम.. यही कारण रहा भले मैं रात को देर तक जागू लेकिन ब्रम्ह महूर्त मैं जागना नहीं भूलता..शायद ही कारण रहा के मैं हमेशा अपनी यार मण्डली से अलग ही रहा क्योंकि जब मेरी सुबह होती थी तब उनके लिए रात ही रहती थी... इसी कारण से हमेशा अन्य गतिविधियों में मेरा मित्रों के साथ तालमेल नहीं हों पता था.. ये मेरे जीवन की यात्रा थी क्योंकि यही यात्रा मेरे धर्म और देश की संस्कृति से जुडी हुई थी... जिसके निर्वाह मैं बिना किसी स्वार्थ के करता चला आ रहा था जो मेरी आदत में रच बस गया था... खैर यात्रा पर ख्याल आया कि हमारे देश को अपने ही नाम के लिए कितनी यात्रा करनी पड़ी थी जिसके लिए मैंने तमाम एतिहासिक साहित्यो को खंगालने लगा था..क्योंकि मन में फिर वहीं हलचल हिलोरे मार रही थी के आखिर मेरे देश का नाम भारत आखिर कैसे पड़ा मुझे इतिहास की किताबों से जो जानकारियां मिल रही थी उनमे भिन्नता अधिक थी कई इतिहाकारों के अपने अपने मत थे किस मत को लिखूं ये मैं तय नहीं कर पा रहा था यही सोचते सोचते सुबह के 4 कब बज गए मुझे पता ही नहीं चला था...अलार्म की कर्कश आवाज़ ने मेरे इस द्वन्द में खलल डाल दी थी... और मन थक कर टूट चुका था... मैंने अब अपनी आंखे बंद कर ली थी जो जलती आंखों में गहरा सुकून दें रही थी और मैं अपने मन में उठने वाले विचारों को दूर सुदूर छोड़ कर नितांत गहरे अंधेरे की तरफ लौट रहा था....
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